जिन्होंने कई-कई बार मिटटी के घरों में बैठ कर परियों और राजाओं
की कहानियां सुनीं, जमीन पर बैठ कर खाना खाया है, प्लेट में चाय पी है। जिन्होंने बचपन में मोहल्ले
के मैदानों में अपने दोस्तों के साथ पम्परागत खेल, गिल्ली-डंडा, छुपा-छिपी, खो-खो, कबड्डी, कंचे जैसे खेल
खेले हैं। जिन्होंने कम या बल्ब की पीली रोशनी में होम वर्क किया है और नावेल पढ़े
हैं। जिन्होंने अपनों के लिए अपने जज़्बात, खतों में आदान
प्रदान किये है। जिन्होंने कूलर, एसी या हीटर
के बिना ही बचपन गुज़ारा है। जो अक्सर अपने छोटे बालों में, सरसों का ज्यादा तेल लगा कर, स्कूल और शादियों में जाया करते थे। जिन्होंने
स्याही वाली दावात या पेन से कॉपी, किताबें, कपड़े और हाथ
काले, नीले किये है। जिन्होंने टीचर्स से मार खाई
है।
जो मोहल्ले के बुज़ुर्गों को दूर से देख कर, नुक्कड़ से भाग
कर, घर आ जाया करते थे। जिन्होंने अपने स्कूल
के सफ़ेद केनवास शूज़ पर, खड़िया का पेस्ट लगा कर चमकाया हैं।
जिन्होंने गोदरेज सोप की गोल डिबिया से साबुन लगाकर शेव बनाई है। जिन्होंने गुड़ की
चाय पी है। काफी समय तक सुबह काला या लाल दंत मंजन या सफेद टूथ पाउडर इस्तेमाल
किया है। जिन्होंने चांदनी रातों में, रेडियो पर BBC की ख़बरें, विविध भारती, आल इंडिया रेडियो और बिनाका जैसे प्रोग्राम सुने
हैं। जब हम सब शाम होते ही छत पर पानी का छिड़काव किया करते थे। उसके बाद सफ़ेद
चादरें बिछा कर सोते थे। एक स्टैंड वाला पंखा सब को हवा के लिए हुआ करता था। सुबह
सूरज निकलने के बाद भी ढीठ बने सोते रहते थे। वो सब दौर बीत गया।
चादरें अब नहीं
बिछा करतीं। डब्बों जैसे कमरों में कूलर, एसी के सामने
रात होती है, दिन गुज़रते हैं। जिन्होने वो खूबसूरत
रिश्ते और उनकी मिठास बांटने वाले लोग देखे हैं, जो लगातार कम
होते चले गए। अब तो लोग जितना पढ़ लिख रहे हैं, उतना ही
खुदगर्ज़ी, बेमुरव्वती, अनिश्चितता, अकेलेपन, व निराशा में
खोते जा रहे हैं। हम ही वो खुशनसीब लोग हैं, जिन्होंने
रिश्तों की मिठास महसूस की है..हम एक मात्र वह पीढी है जिसने अपने माँ-बाप की बात
भी मानी और बच्चों की भी मान रहे है। मित्र प्रेम ब्रिजवानी द्वारा [रायपुर]
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