Friday, May 10, 2019

क्या भारत अपनी करेंसी की छपाई के लिए विदेशों पर निर्भर है जाने पर्दे के पीछे की हकीकत.....


कुछ महीने पहले ये चर्चा पूरे देश में बड़े जोरों से फैली कि भारतीय करेंसी का प्रोडक्शन चीन में हो रहा है। सरकार को इसका खंडन देना पड़ा कि भारतीय करेंसी की छपाई चीन में नहीं हो रही है,लेकिन लंबे समय से ये बात चर्चाओं में बराबर रही है कि भारत अपनी करेंसी की छपाई के लिए विदेशों पर निर्भर है।  मौजूदा दौर में तो सारी भारतीय करेंसी देश में ही छापी जा रही है,लेकिन ये सही है कि इंडियन करेंसी को कई सालों तक बाहर छपवाकर मंगाया जाता था। 1997 में भारतीय सरकार ने महसूस किया कि ना केवल आबादी में इजाफा हो रहा है बल्कि आर्थिक गतिविधियां भी बढ़ रही हैं। इससे निपटने के लिए तुरंत और करेंसी की जरूरत थी। 
भारत के दोनों करेंसी छापाखाने बढ़ती मांग को पूरा करने में नाकाफी थे। 1996 में देश में यूनाइटेड फ्रंट की सरकार बनी थी। एचडी देवेगौडा प्रधानमंत्री बने थे। इसी दौरान इंडियन करेंसी को बाहर छापने का फैसला पहली बार लिया गया। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से मंत्रणा करने के बाद केंद्र सरकार ने अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय कंपनियों से भारतीय नोटों को छपवाने का फैसला किया। इसके बाद कई साल तक भारतीय नोटों का एक बड़ा हिस्सा बाहर से छपकर आता रहा। हालांकि ये बहुत मंहगा सौदा था। भारत को इसके एवज में कई हजार करोड़ रुपए खर्च करने पड़े। भारत सरकार ने तब 360 करोड़ करेंसी बाहर छपवाने का फैसला किया था। 
इस पर 9.5 करोड़ डॉलर का खर्च आया था। इसकी बहुत आलोचना भी हुई थी। साथ ही देश की करेंसी की सुरक्षा के जोखिम में पड़ने की भी पूरी आशंका थी। लिहाजा बाहर नोट छपवाने का काम जल्दी ही खत्म कर दिया गया। इसके बाद भारत सरकार ने सीख ली और दो नई करेंसी प्रेस खोलने का फैसला किया। 1999 में मैसूर में करेंसी छापाखाना खोला गया तो वर्ष 2000 में सालबोनी (बंगाल) में। इससे भारत में नोट छापने की क्षमता बढ़ गई। करेंसी के कागजों की मांग पूरी करने के लिए देश में ही 1968 में होशंगाबाद में पेपर सेक्यूरिटी पेपर मिल खोली गई, इसकी क्षमता 2800 मीट्रिक टन है, लेकिन इतनी क्षमता हमारे कुल करेंसी उत्पादन की मांग को पूरा नहीं करती, लिहाजा हमें बाकी कागज ब्रिटेन, जापान और जर्मनी से मंगाना पड़ता था। 
हालांकि बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए होशंगाबाद में नई प्रोडक्शन लाइन डाली गई और मैसूर में दूसरे छापेखाने ने काम शुरू कर दिया।  इसके बाद दावा किया जा रहा है कि हम अपने कागज की सारी मांग यहीं से पूरी कर रहे हैं। हमारे हाथों में 500 और 2000 रुपए के जो नए नोट आ रहे हैं, उनका कागज भारत में ही निर्मित हो रहा है। कुछ समय पहले तक भारतीय नोटों में इस्तेमाल होने वाला कागज का बड़ा हिस्सा जर्मनी और ब्रिटेन से आता था। 
हालांकि इसका उत्पादन कहां होता है, इसका खुलासा आरबीआई ने नहीं किया है। नोट में सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला खास वाटरमार्क्ड पेपर जर्मनी की ग्रिसेफ डेवरिएंट और ब्रिटेन की डेला रूई कंपनी से आता था, जो अब भारत में ही तैयार हो रहा है। अब स्याही से लेकर कागज तक भारत में बन रहा है।


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